सोमवार, 3 दिसंबर 2018

डॉ राजेन्द प्रसाद की जयंती पर एक रिपोर्ट।


भारत के प्रथम राष्ट्रपति का गांव है जीरादेई, जहां 3 दिसंबर को 1884 को उनका जन्म हुआ था। इस गांव की पहचान देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के नाम से ही है।



इस पूरे क्षेत्र में उनके नाम की गूंज हैं, अनेक संस्थान व संस्थाएं उनके नाम पर चल रही हैं। हालांकि इस जीरादेई गांव के अलावा भी एक और जीरादेई है, जी हां, दो-दो जीरादेई। जीरादेई गांव से लगभग 4 किलोमीटर दूर जीरादेई है अर्थात जीरादेई रेलवे स्टेशन। केवल रेलवे स्टेशन का नाम जीरादेई है। 


जिस जगह जीरादेई रेलवे स्टेशन स्थित है, वह दरअसल ठेपहा गांव है। प्रथम राष्ट्रपति यदि चाहते, तो उनके लिए रेल की पटरियां चार किलोमीटर और बिछ जातीं, लेकिन वह दौर ऐसा था, जब देश के नेताओं ने जो भी सोचा पूरे देश के लिए सोचा, अपने गांव और क्षेत्र के प्रति कोई स्वार्थ नहीं दिखाया। 




असली जीरादेई असली जीरादेई तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का गांव है। यहां दो सटे हुए गांव हैं, जीरादेई और जामापुर। कायदे से इस गांव के सबसे पास के रेलवे स्टेशन का नाम ठेपहा होना चाहिए था, लेकिन डा. राजेन्द्र प्रसाद को आदर देने के लिए इस स्टेशन का नाम जीरादेई रखा गया। अब असली जीरादेई जाने के लिए कागजी या नकली जीरादेई से होकर गुजरना पड़ता है।



राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए।



राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।

यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था।



हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब भी वे प्रधान मन्त्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अत: उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथाबड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के देश और अंग्रेजी के पटना लॉ वीकली समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।




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